आज जब की आजादी के सात दर्शकों के बाद लोकतंत्र के तीनों पाये बीमार दिखने लगे हैं, तब इस चौथे पाए (मीडिया) पर जिम्मेदारियों का बोझ बढ़ना स्वाभाविक है, लेकिन यह सवाल भी उठने लगा है कि क्या यह चौथ पाया लायक है।कि शेष तीनों पायों का बोझ वहन कर सके। सवाल मीडिया के भीतर पैदा हुई चुनौतियों और कमजोरियों को लेकर भी उठ रहे हैं। ऐसा लगने लगा है, जैसे मीडिया लोकतंत्र की बजाय सरकार का पाया बन बैठा है।
‘पेड न्यूज’ के खतरे से लोकतंत्र को -बचाने की चर्चा चल ही रही थी कि
2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में पत्रकार मीडिया-राडिया का कॉरपोरेट और राजनीति से गठजोड़ एक नई चुनौती के रूप में सामने आ खड़ा हुआ। कहते हैं कि लोकतंत्र के चार स्तंभों में मीडिया चौथा और सबसे महत्त्वपूर्ण है। आज सवाल यह है कि क्या पत्रकार पत्रकारिता के साथ ही सरकार और राजनीति के झाँसे में आकर सियासत करने लगा है। कॉरपोरेट लॉबिस्ट नीरा राडिया के संवादों से जो राज खुले, उसने तो पत्रकारिता को बेनकाब करके रख दिया। उसके बाद तो अब पत्रकार बिरादरी में भी एक-दूसरे को शंका की दृष्टि से देखा जा रहा है।
भारतीय पत्रकारिता आज असामान्य दौर से गुजर रही है। पत्रकारिता सिर्फ सूचना, शिक्षा और मनोरंजन का जरिया नहीं रह गई है। अब सूचना और संवाद का व्यापार होने लगा है। पत्रकारिता के जरिए सरकारों का गठन, उत्थान और पतन हो रहा है। एक छोटी- सी अखबारी सूचना से समाज में तनाव, विवाद और संघर्ष पैदा हो रहे हैं। इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों की ब्रेकिंग न्यूज से ऐसी अनेक झड़पों के पैदा होने की संभावना सदैव बनी रहती है। समस्याओं के दौरान मीडिया कवरेज न सिर्फ जोखिम भरी होती है, बल्कि जोखिम
पैदा करनेवाली भी होती है। चुनावों के दरम्यान प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों में स्थान और समय खरीदने का
चलन हो गया है। दल और नेता प्रायोजित सर्वे करवाते हैं। बाद में इसे प्रकाशित और प्रसारित किया जाता है। खबरों में विज्ञापन और विज्ञापनों में खबर का चलन शुरू हो चुका है। चुनाव आयोग भी इसे लेकर खासा चिंतित है।
विज्ञान और तकनीक के तीव्र विकास के कारण इस सदी में मीडिया ईश्वर की
तरह सर्वव्यापी हो गया है। मीडिया सभी सकारात्मक और नकारात्मक बदलावों को प्रभावित करने लगा है। मीडिया के लिए भौगोलिक सीमाएँ कोई मायने नहीं रखती हैं। अब यह और भी अधिक महत्त्वपूर्ण हो गया है कि ऐसी स्थिति में मीडिया पत्रकारिता की अंतःशक्ति पर निर्भर करता है कि वह राजनीतिक-सामाजिक परिवर्तनों को प्रभावित करता है या उन प्रभावित करनेवाले घटकों से स्वयं प्रभावित होता है। ऐसा माना जाता है कि मीडिया सभी तरह की स्थितियों के लिए जनमत का निर्माण करता है, उसे प्रभावित करता है और उसे दिशा देता है। किसी भी तरह के संघर्ष, संकट, तनाव और विवाद में यह बहुत मायने रखता है कि मीडिया उस दरम्यान कैसी भूमिका अदा करता है, कैसा रुख अख्तियार करता है। अपराध, जातीय-सांप्रदायिक संघर्ष और राजनीतिक द्वंद्व के दौरान भी मीडिया से जिम्मेदार भूमिका की अपेक्षा की जाती है। तनाव, संघर्ष और विचलन के दौरान मीडिया रिपोर्टिंग का खासा महत्त्व होता है। मीडिया की सहक्रिया और अंतर्क्रिया के कारण राजनीतिक तनाव और विचलन तथा
सामाजिक संघर्षों को न सिर्फ बल मिलता है, बल्कि कई बार यह इन्हीं कारणों से पैदा भी होते हैं। लोकतंत्र के तीनों स्तंभ आवश्यकतानुसार मीडिया का उपयोग करते हैं। मीडिया शांति के लिए कारगर है और अशांति के लिए भी। मीडिया न सिर्फ संघर्ष को पैदा करता और बढ़ावा दे सकता है, बल्कि उसका समाधान भी कर सकता है। सवाल मीडिया के इरादे का है। मीडिया की यही शक्ति है, जिसे अपने-अपने हिसाब से न सिर्फ लोकतंत्र के सभी
स्तभ उपयोग कर रहे है। बल्कि अन्य सामाजिक शक्तियाँ भी इसका इस्तेमाल कर रही हैं। मीडिया और राजनीति का चोली-दामन का संबंध है। एक-दूसरे के बिना इनका काम नहीं चल सकता। राजनीतिक रिपोर्टिंग करनेवालों को लोभ, लालच और भय का सामना भी करना पड़ता है। न सिर्फ कॉरपोरेट घरानों ने, बल्कि नौकरशाही और राजशाही ने भी मीडिया में दलालों और बिचौलियों की एक बड़ी फौज तैयार कर रखी है। जिला स्तरीय प्रतिनिधि से लेकर संवाददाता, डेस्क इंचार्ज और संपादक स्तर तक अपना जाल फैला रखा है। पत्रकारिता की नामचीन हस्तियों- को कठघरे में देख ऐसा लगता है कि पत्रकारों की एक बड़ी जमात कॉरपोरेट और राजनीतिक हाथों में या तो बिक चुकी है, या फिर खुद को बेचने के लिए तैयार खड़ी है। बस खरीददार और बोली लगाने की देरी है।
स्थितियों को देख ‘इंडिया टुडे’ के कार्यकारी संपादक जगदीश उपासने ने
कहा है कि ‘पत्रकारिता में इस वक्त एक बुरा दौर चल रहा है, यह जल्द ही बीत जाएगा। आज शीर्ष पर जो लोग बैठे हुए हैं, वे भी अपने आप को असहाय पा रहे हैं। कारण कुछ भी हों, लेकिन वे चाहकर भी उभर रही चुनौतियों का सामना नहीं कर पा रहे हैं।(‘यह हमारे निजी विचार है)
मीडिया और कॉरपोरेट गठजोड़
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