भारत में हर साल करीब 4.6 फीसद लोग केवल इलाज के खर्च के कारण गरीब हो जाते हैं. (पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया—पीएचएफआइ—की सर्वे रिपोर्ट)
पांच लाख से ज्यादा ग्रामीण और नगरीय लोगों के बीच एनएसएसओ के सर्वे से पता चला कि पूरे देश में आठ फीसद लोग पिछले पंद्रह दिन में किसी न किसी बीमारी के शिकार हुए हैं. 45 से 59 साल के आयु वर्ग में 100 में 12 लोग और 60 साल से ऊपर की आबादी में 100 में 27 लोग हर पखवाड़े इलाज कराते हैं
इलाज के लिए निजी अस्पताल ही वरीयता पर हैं. करीब 23 फीसद बीमारियों का इलाज निजी अस्पतालों में और 43 फीसदी का प्राइवेट क्लीनिक में होता है. सरकारी अस्पताल केवल 30 फीसद हिस्सा रखते हैं
• केवल 14 फीसद ग्रामीण और 19 फीसद नगरीय आबादी के पास सेहत का बीमा है. ग्रामीण इलाकों में निजी बीमा की पहुंच सीमित है
• और अंतत: भारत के गांवों में अस्पताल में भर्ती पर (विभिन्न बीमारियों के इलाज के लिए भर्ती अवधि के औसत पर आधारित) खर्च 16,676 रुपए है जबकि शहरों में करीब 27,000 रुपए.
तो प्रधानमंत्री आयुष्मान से क्या फर्क पड़ा? यह स्कीम अभी तो अस्पतालों के फ्रॉड, नकली कार्डों, राज्यों के साथ समन्वय, बीमा कंपनियों के नखरे, इलाज की दरों में असमंजस से जूझ रही है लेकिन दरअसल यह स्कीम भारत की बीमारी जनित गरीबी का इलाज नहीं है. यह स्कीम तो गंभीर बीमारियों पर अस्पतालों में भर्ती के खर्च का इलाज करती है. यहां मुसीबत कुछ दूसरी है.
भारत में हर साल जो 5.5 करोड़ लोग बीमारी की वजह से गरीब हो जाते हैं, उनमें 72 फीसद खर्च केवल प्राथमिक चिकित्सा पर है. पीएचएफआइ का सर्वे बताता है कि इलाज से गरीबी की 70 फीसद वजह महंगी दवाएं हैं. एनएसएओ का सर्वे बताता है कि भारत में इलाज का 70-80 फीसद खर्च गाढ़ी कमाई की बचत या कर्ज से पूरा होता है. सनद रहे कि शहरों में 1,000 रुपए और गांवों में 816 रुपए प्रति माह खर्च कर पाने वाले लोग गरीबी की रेखा से नीचे आते हैं.
जिंदगी बचाने या इलाज से गरीबी रोकने के लिए प्राथमिक स्वास्थ्य नेटवर्क चाहिए जो पूरी तरह ध्वस्त है. भारत में स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च बांग्लादेश, नेपाल और घाना से भी कम है और डॉक्टर या अस्पताल बनाम मरीज का औसत डब्ल्यूएचओ पैमाने से बहुत नीचे है.
अगर हम हकीकत से आंख मिलाना चाहते हैं तो हमें स्वीकार करना पड़ेगा कि
• रोजगार की कमी और आय-बचत में गिरावट के बीच बीमारियां बढ़ रही हैं और गरीबी बढ़ा रही हैं
• भारत में निजी अस्पताल बेहद महंगे हैं. खासतौर पर दवाओं और जांच की कीमतें बहुत ज्यादा हैं
• अगले पांच साल में देश के कई राज्यों में बुजुर्ग आबादी में इजाफे के साथ स्वास्थ्य एक गंभीर संकट बनने वाला है
अगर इन हकीकतों को सवालों में बदलना चाहें तो हमें सरकार से पूछना होगा कि जब हम टैक्स भरने में कोई कोताही नहीं करते हैं, हर बढ़े हुए टैक्स को हंसते हुए झेलते हैं, हमारी बचत पूरी तरह सरकार के हवाले है तो फिर स्वास्थ्य पर खर्च जो 1995 में जीडीपी का 4 फीसद था वह 2017 में केवल 1.15 फीसद क्यों रह गया?
इन तथ्यों से किसी धार्मिक या जातीय भावनाओं में कोई उबाल नहीं आता, ये कोई रोमांच नहीं जगाते फिर भी हम उनसे नजरें मिलाते हुए डरते हैं. कड़कड़ाती ठंड में खून खौलाऊ राजनीति के बीच हमारे पास बीमारियों को लेकर कुछ ताजा सच हैं. बीमारी, भूख, बेकारी, बुढ़ापा, पर्यावरण की त्रासदी, इन सबको लेकर हमने जो लक्ष्य तय किए थे अब बारी उनकी हार-जीत के नतीजे भुगतने की है.
बीते माह सरकार की सर्वे एजेंसी (एनएसएसओ) ने नया हेल्थ सर्वेक्षण जारी किया जो जुलाई 2017 से जून 2018 के बीच हुआ था. आखिरी खबर आने तक सरकार ने इसे नकारा नहीं था. इन आंकड़ों को स्वतंत्र सर्वेक्षणों (पीएचएफआइ) और विश्व बैंक (2018), डब्ल्यूएचओ (2016), लैंसेट (दिसंबर 2017) और आर्थिक समीक्षा (2017-18) के साथ पढ़ने पर 2020 की शुरुआत में हमें भारतीयों की सेहत और स्वास्थ्य सुविधाओं की जो तस्वीर मिलती है,
वह आने वाले दशक की सबसे बड़ी चिंता होने वाली है.
• अस्पताल में भर्ती होने वालों (प्रसव के अलावा) की संख्या लगातार बढ़ रही है. नगरीय आबादी बीमारी से कहीं ज्यादा प्रभावित है. सबसे ज्यादा बुरी हालत महिलाओं और बुजर्गों की है. गांवों में 100 में आठ और नगरों में दस महिलाएं हर पंद्रह दिन में बीमार पड़ती हैं. लेकिन अस्पताल में भर्ती होने के मामले में इनकी संख्या पुरुषों से कम है. इसकी एक बड़ी वजह महिलाओं की उपेक्षा हो सकती है
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