भारतीय राजनीति में आज जब हम भ्रष्ट नेताओं को देखते हैं तो मन में उन नेताओं की छवि उभरती है जिन्होंने इस देश की राजनीति को बिना राजनीति में आए ही सही राह पर चलाने का संकल्प लिया था. सत्ता परिवर्तन और समाजवाद के सबसे बड़े परिचायक राम मनोहर लोहिया ऐसे ही व्यक्तियों में से एक थे.
राम मनोहर लोहिया और उनका समाजवाद
राजनीतिक अधिकारों के पक्षधर रहे डॉ. लोहिया ऐसी समाजवादी व्यवस्था चाहते थे जिसमें सभी की बराबर की हिस्सेदारी रहे. वह कहते थे कि सार्वजनिक धन समेत किसी भी प्रकार की संपत्ति प्रत्येक नागरिक के लिए होनी चाहिए. उन्होंने एक ऐसी टीम खड़ी की जिससे समाजवादी आंदोलन का असर लंबे समय तक महसूस किया जाए. डॉ. लोहिया रिक्शे की सवारी नहीं करते थे. कहते थे एक आदमी एक आदमी को खींचे यह अमानवीय है.
राजनीति के कुंवारे
डॉ. राम मनोहर लोहिया का पूरा जीवन सादगी भरा रहा. गरीबी अमीरी की बढ़ती खाई को पाटने में उनके योगदान अहम है. आज के दौर में उनके विचार और ज्यादा प्रासंगिक होते जा रहे हैं.
राम मनोहर लोहिया और राइट टू रिकॉल
पिछले साल अन्ना के आंदोलन के समय एक शब्द काफी चर्चा में था और वह था “राइट टू रिकॉल”. लेकिन इस सिद्धांत को कभी राम मनोहर लोहिया ने भी देश को अपनाने पर जोर दिया था. डॉ. लोहिया ने एक बार कहा था कि ‘जिंदा कौमें पांच साल तक इंतजार नहीं करतीं.‘ यह सिद्धांत आज भी प्रासंगिक है और जब तक लोकतांत्रिक व्यवस्था कायम रहेगी, प्रासंगिक बना रहेगा. उन्होंने जोर दिया था कि यह व्यवस्था (राइट टू रिकाल) संविधान संशोधन कर लागू की जाए.
राम मनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण: रेल की पटरी
राम मनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण शायद इन दोनों शख्सियतों से बड़ा समाजवादी नेता भारत के राजनीतिक इतिहास में कभी नहीं हुआ. दोनों ही नेता गांधी जी के कदमों पर चलने वाले शीर्ष नेता थे जो कभी आजादी से पहले अंग्रेजों से लोहा लेते हुए हजारों बार जेल गए तो वहीं आजादी के बाद भ्रष्ट सरकार को आंख दिखाने के जुर्म में भी जेल गए.
राम मनोहर लोहिया और जय प्रकाश नारायण को अगर एक ही गाड़ी की सवारी कहा जाए तो गलत ना होगा लेकिन सिर्फ कुछेक कारणों की वजह से दोनों ने नाजुक समय में एक-दूसरे का साथ छोड़ा और उसका परिणाम यह हुआ कि जो समाजवादी आंदोलन कभी देश में अपने चरम पर था आज बिलकुल खत्म हो चुका है.
भारत की आजादी से पहले राम मनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण गांधी जी के साथ ही कार्य करते थे लेकिन आजादी के बाद जब कश्मीर के बंटवारे की बात आई तो दोनों के विचारों में टकराव हुए और अल्प समय के लिए दोनों अलग हो गए.
दरअसल इसके पीछे जयप्रकाश नारायण का नेहरू प्रेम था. जेपी नेहरूजी की विचारधारा से बेहद प्रभावित थे और अकसर उनका समर्थन करते थे इसके विपरीत राम मनोहर लोहिया को नेहरू जी और कांग्रेस की कई नीतियों से बेहद निराशा थी.
राम मनोहर लोहिया और जय प्रकाश नारायण का व्यक्तित्व भी बेहद विचारणीय है. इतिहासकारों का मानना है कि जय प्रकाश अति सद्भाव से ओत-प्रोत थे और बोलचाल में बेहद नरम थे. यूं तो लोहिया की तरह उनमें भी सत्ता-पिपासा लेश मात्र नहीं थी, मगर उनके विचारों में स्पष्टता की कमी थे. वह अपने आसपास के लोगों से बड़ी जल्दी प्रभावित हो जाते थे. विवादस्पद प्रश्न पर स्पष्ट राय देने तथा उस पर अड़े रहने में जय प्रकाश को हिचक होती थी. इतिहास भी साक्षी है कि किसान मजदूर प्रजा पार्टी के साथ विलीनीकरण की समस्या हो या कांग्रेस के साथ सहयोग का विवाद जय प्रकाश अकसर ढुलमुल नीति अपनाते थे और यही वजह रही कि लोहिया को उनसे नाराजगी थी.
राम मनोहर लोहिया को लगता था कि जयप्रकाश नारायण एक बेहतरीन संचालक और उनके समाजवादी आंदोलन को शिखर तक ले जाने में सहायक होंगे लेकिन जेपी के स्वभाव से वह दुखी थे. अपने रोष को उन्होंने एक बार निम्न कथनों के द्वारा जगजाहिर भी किया: “देश की जनता का तुमसे लगाव है, तुम चाहो तो देश को हिला सकते हो, बशर्ते देश को हिलाने वाला खुद ना हिले.”
जयप्रकाश नारायण और राम मनोहर लोहिया के मतभेद का नतीजा
समाजवादी आन्दोलन का यह दुर्भाग्य रहा कि जय प्रकाश नारायण और राम लोहिया के बीच मतभेदों के कारण दोनों का व्यक्तित्व व गुण परस्पर पूरक होते हुये भी आपसी सहयोग का सिलसिला टूट गया. कई लोग मानते थे कि राम मनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण की विचारधारा तो एक थी लेकिन उनके बीच जोड़ने वाली कड़ी गुम थी. आजादी से पहले इस कड़ी का रोल गांधीजी ने अच्छी तरह निभाया लेकिन उनकी मौत के बाद दूसरा कोई ना था.
पर हुआ क्या, जिस काम को राम मनोहर लोहिया जेपी के कंधों पर डालना चाहते थे उसी काम को बाद में खुद जेपी ने ही शुरू किया. अगर राम मनोहर लोहिया के साथ जयप्रकाश नारायण ने सही दिशा में कार्य किया होता तो कांग्रेस की सत्ता 1967 में ही उलट जाती. पर जब जय प्रकाश ने यह काम संभाला तब तक समाजवादी आंदोलन बेहद कमजोर हो चुका था.
30 सितम्बर, 1967 को लोहिया को नई दिल्ली के विलिंग्डन अस्पताल, अब जिसे लोहिया अस्पताल कहा जाता है, में पौरुष ग्रंथि के आपरेशन के लिए भर्ती किया गया जहां 12 अक्टूबर, 1967 को उनका देहांत 57 वर्ष की आयु में हो गया.
कश्मीर समस्या हो, गरीबी, असमानता अथवा आर्थिक मंदी, इन तमाम मुद्दों पर राम मनोहर लोहिया का चिंतन और सोच स्पष्ट थी. कई लोग राम मनोहर लोहिया को राजनीतिज्ञ, धर्मगुरु, दार्शनिक और राजनीतिक कार्यकर्ता मानते हैं. डॉ. लोहिया की विरासत और विचारधारा अत्यंत प्रखर और प्रभावशाली होने के बावजूद आज के राजनीतिक दौर में देश के जनजीवन पर अपना अपेक्षित प्रभाव कायम रखने में नाकाम साबित हुई. उनके अनुयायी उनकी तरह विचार और आचरण के अद्वैत को कदापि कायम नहीं रख सके.
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