25 सितंबर पंडित दीनदयाल उपाध्याय जन्म जयंती पर, आत्मनिर्भर भारत की परिकल्पना दीनदयाल जी के विचारों में निहित रही है ।

by Umesh Paswan


दीनदयाल उपाध्याय जनसंघ के राष्ट्र जीवन दर्शन के निर्माता माने जाते हैं उनका उद्देश्य स्वतंत्रता की पुनर्रचना के प्रयासों के लिए विशुद्ध भारतीय तत्व दृष्टि प्रदान करना था उन्होंने भारत की सनातन विचारधारा को युगा अनुकूल रूप में प्रस्तुत करते हुए एकात्म मानववाद की विचारधारा दी उन्हें जनसंघ की आर्थिक नीति का रचनाकार माना जाता है| उनका विचार था कि आर्थिक विकास का मुख्य उद्देश्य सामान्य मानव का सुख है
भारत में रहने वाला और इसके प्रति महत्त्व की भावना रखने वाला मानव समूह एक जन है उनकी जीवन प्रणाली कला साहित्य दर्शन सब भारतीय संस्कृति है इसलिए भारतीय राष्ट्रवाद का आधार यह संस्कृति है इस संस्कृति निष्ठा रहे तभी भारत एकात्म रहेगा
हमने मानव के समग्र एवं संकलित रूप का थोड़ा विचार किया है इस आधार पर हम चले तो भारतीय संस्कृति के शाश्वत मूल्यों के साथ राष्ट्रीयता, प्रजातंत्र, समता और विश्व -एकता के आदर्शों को एक समन्वित रूप में रख सकेंगे। इनके बीच का विरोध नष्ट होकर वे परस्पर पूरक होंगे। मानव अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा और जीवन उद्देश्य को प्राप्त कर सकेगा।
हमने यहां तात्विक विवेचन किया है, किंतु करोड़ों भारतवासी मात्र दर्शन शास्त्री नहीं है ।हम तो भारतीय जन के माध्यम से राष्ट्र को सबल ,समृद्धि और सुखी बनाने का संकल्प लेकर चले हैं। अत: इस अधिष्ठान पर हमें राष्ट्र रचना का व्यवहारिक प्रयत्न करना होगा ।हमने अपनी प्राचीन संस्कृति का भी विचार किया है, किंतु हम कोई पुरातत्त्ववेत्ता नहीं है ।हम किसी पुरातत्व संग्रहालय के संरक्षक बनकर नहीं बैठना चाहते ।हमारा देश संस्कृति का संरक्षण मात्र नहीं ,अपितु उसे गति देकर सजीव व सक्षम बनाना है। उसके आधार पर राष्ट्र की धारणा हो और हमारा समाज स्वस्थ एवं विकासोन्मुख जीवन व्यतीत कर सके ,इसकी व्यवस्था करनी है ।इस दृष्टि से हमें अनेक रूढ़ियां समाप्त करनी होंगी , बहुत से सुधार करने होंगे ।जो हमारे मानव का विकास और राष्ट्र की एकात्मता की वृद्धि में पोषक हो ,वह हम करेंगे और इसमें जो साधक, हो उसे हटाएंगे । ईश्वर ने जैसा शरीर दिया है, उसमें मीन मेख निकालकर अथवा आत्मग्लानि लेकर चलने की आवश्यकता नहीं है ।आज यदि समाज में छुआछूत और भेदभाव घर कर गए हैं जिनके कारण लोग मानव को मानव समझ कर नहीं चलते और जो राष्ट्र की एकता के लिए घातक सिद्ध हो रहे हैं , हम उनको समाप्त करेंगे।
हमे उन संस्थाओं का निर्माण करना होगा जो हमारे अंदर कर्म चेतना पैदा करें । हम स्वकेंद्रित एवं स्वार्थी बनने के स्थान पर राष्ट्र सेवी बने, अपने बंधुओं के प्रति सहानुभूति पूर्ण दृष्टिकोण ही नहीं उनके प्रति आत्मीयता और प्रेम पैदा करें । इस प्रकार की संस्थाएं ही वास्तव में हमारी चिति का आविष्कार कर सकेंगी।
जैसे राष्ट्र का अवलंब चिति होती है , वैसे ही जिस शक्ति से राष्ट्र की धारणा होती है , उसे विराट कहते हैं विराट राष्ट्र की वह कर्म शक्ति है जो चिति से जागृत एवं संगठित होती है। विराट का राष्ट्र जीवन में वही स्थान है ,जो शरीर में प्राण का प्राण से ही सभी इंद्रियों को शक्ति मिलती है, बुद्धि में चैतन्य उत्पन्न होता है और आत्मा शरीर अस्त रहती है । राष्ट्र में भी विराट के सफल होने पर ही उसके भिन्न-भिन्न अव्यव अर्थात संस्थाएं सक्षम और समर्थ होती हैं। अन्यथा संस्थागत व्यवस्थाएं केवल दिखावा मात्र रह जाती हैं। विराट के आधार पर ही प्रजातंत्र सफल होता है और राज्य बलशाली बनता है । इसी अवस्था में राष्ट्र की विविधता उसकी एकता के लिए बाधक नहीं, साधक होती है । भाषा ,व्यवसाय आदि के भेद तो सभी स्थानों पर होते हैं , किंतु जहां विराट जागृत रहता है वहां संघर्ष नहीं होते । हम लोग शरीर के भिन्न-भिन्न अवयवों की भांति या कुटुंब के घटकों के समान परस्पर मूर्खता से काम करते रहते हैं।


हमें अपने राष्ट्र के विराट को जागृत करने का काम करना है। अपने प्राचीन के प्रति गौरव का भाव लेकर , वर्तमान का यथार्थवादी अकलन और भविष्य की महत्वाकांक्षा लेकर हम इस कार्य में जुट जाएं । हम भारत को ना तो किसी पुराने समय की प्रतीच्छाया बनाना चाहते हैं और ना रूस या अमेरिका की अनुकृति। विश्व के दर्शन और आज तक की अपनी संपूर्ण परंपरा के आधार पर हम ऐसे भारत का निर्माण करेंगे , जो हमारे पूर्वजों के भारत से अधिक गौरवशाली होगा, जिसमें जन्मा मानव अपने व्यक्तित्व का विकास करता हुआ संपूर्ण मानवता की ही नहीं अपितु सृष्टि के साथ एकात्मता का साक्षात्कार कर नर से नारायण बनने में समर्थ हो सकेगा। यह हमारी संस्कृति का शाश्वत देवी और प्रवाह मान रुप है । चौराहे पर खड़े विश्व मानव के लिए यही हमारा दिग्दर्शन है भगवान हमें शक्ति दे , हम इस कार्य में सफल हो ,यही प्रार्थना है।
वसुदेव कुटुंबकम भारतीय सविता से प्रचलित है इसी के अनुसार भारत में सभी धर्मों को समान अधिकार प्राप्त है संस्कृति से किसी व्यक्ति वर्ग राष्ट्र आदि की यह बातें जो उसके मन रुचि आचार विचार कला कौशल और सभ्यता की सूचक होती हैं पर विचार होता है दूसरे शब्दों में कहें तो यह जीवन जीने की शैली है उपाध्याय जी पत्रकार होने के साथ-साथ चिंतक और लेखक भी थे उनकी असमय मृत्यु से यह बात स्पष्ट है कि जिस धारा में वे भारतीय राजनीति को ले जाना चाहते थे वह धारा हिंदुत्व की थी इसका संकेत उन्होंने अपनी कुछ कृतियों में भी दिया था इसलिए कालीकट अधिवेशन के बाद मीडिया का ध्यान उनकी ओर किए।

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