दुर्ग। स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में 12 दिसंबर 1930 की सुबह आज भी एक अमर गाथा की तरह दर्ज है। मुंबई के काला घोड़ा इलाके में विदेशी कपड़े से भरा एक अंग्रेजी ट्रक रोकने के प्रयास में मजदूर वर्ग के युवा स्वतंत्रता सेनानी बाबू गेनू सखाराम को बेरहमी से कुचल दिया गया। यह घटना न केवल पूरे शहर में आक्रोश का ज्वार बनकर फैल गई, बल्कि स्वदेशी आंदोलन को नई ऊर्जा भी दे गई।

गाँव से उठकर आंदोलन का चेहरा बने गेनू

रायगढ़ जिले के महाड़ तालुका में जन्मे बाबू गेनू एक मजदूर परिवार से थे। मुंबई में मजदूरी करते हुए भी उनके दिल में देशभक्ति की लौ प्रज्वलित थी। गांधीजी के नेतृत्व में चल रहे विदेशी वस्तु बहिष्कार आंदोलन में वे सक्रिय रूप से शामिल हुए और आम लोगों को स्वदेशी अपनाने के लिए प्रेरित करते रहे।
घटना सुबह 9 बजे के आसपास—जनता और पुलिस आमने-सामने
घटना के प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार, विदेशी कपड़ा लेकर जा रहे ट्रक को कार्यकर्ताओं के एक समूह ने रोकने की कोशिश की। आगे-आगे बाबू गेनू थे।

अंग्रेज अधिकारी ने ट्रक चालक को आगे बढ़ने का आदेश दिया। चेतावनी के बावजूद गेनू हटे नहीं।

देखते ही देखते ट्रक तेजी से आगे बढ़ा और गेनू को रौंदते हुए निकल गया। मौके पर चीख-पुकार मच गई और भीड़ ने अंग्रेजी शासन के खिलाफ तीव्र नारे लगाए।
घटना की खबर फैलते ही मुंबई के कई हिस्सों में विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए। मजदूर संगठनों, छात्रों और आम जनता ने बाबू गेनू की शहादत को ‘आज़ादी की कीमत’ बताते हुए विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार को और तेज कर दिया।

नेताओं ने इसे अंग्रेजी शासन की क्रूरता करार देते हुए कहा कि “ब्रिटिश सरकार आम भारतीय के खून से अपने व्यापार को सींच रही है।

स्वदेशी आंदोलन को मिला जनसैनिक

बाबू गेनू की शहादत के बाद महाराष्ट्र भर में स्वदेशी आंदोलन तेज हुआ। कई शहरों में विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के लिए जुलूस निकाले गए।

इतिहासकारों के अनुसार, “बाबू गेनू की बलिदान गाथा ने आम मजदूरों में वह आत्मविश्वास भरा, जिसने स्वतंत्रता संग्राम को मजबूत जनाधार प्रदान किया।”
आज मुंबई, पुणे और अन्य शहरों में कई स्थानों का नाम ‘बाबू गेनू चौक’ रखा गया है। स्कूलों में उनके बलिदान की कथा सुनाई जाती है ताकि आने वाली पीढ़ियाँ समझ सकें कि आज़ादी केवल नेताओं के भाषणों से नहीं, बल्कि आम भारतीयों के साहस से मिली है। बाबू गेनू सखाराम आज भी स्वतंत्रता संग्राम में मजदूर वर्ग के सबसे बड़े नायकों में गिने जाते हैं।
उनकी शहादत यह संदेश देती है कि अन्याय के सामने खड़े होने की कीमत चाहे प्राण क्यों न हों—लेकिन सत्य और स्वदेश का रास्ता कभी नहीं छोड़ा जा सकता। लेखक उमेश पासवान स्वदेशी जागरण मंच छत्तीसगढ़ प्रान्त के प्रचार प्रमुख हैं।