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संसदीय विशेषाधिकार बनाम न्यायालय, प्रेस व नागरिक।

संसदीय विशेषाधिकार के संविधान प्रदत्त नागरिक स्वतन्त्रताओं पर प्रभाव केकुछ महत्त्वपूर्ण मामले भारतीय न्यायालयों में पहुँचे । एक मामले में विधाषिकाऔर न्यायपालिका में सीधा टकराव हुआ । यहाँ तक कि उत्तर प्रदेश विधानसभाने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के दो न्यायाधीशों की गिरफ्तारी के वारंट जारी किएतथा उन्हें सदन की बार पर उपस्थित होने को कहा और उच्च न्यायालय नेविधानसभा के तत्सम्बन्धी प्रस्ताव पर रोक लगा दी । इन सब मामलों मेंविशेषाधिकारों के विषय में संसद् और न्यायालय की परस्पर शक्तियों और सीमाओं,संसद् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता तथा संसद् और नागरिक अधिकारों के विषयोंकी संवैधानिक मीमांसा हुई । फलतः भविष्य के लिए कुछ सिद्धांत अभिनिर्धारितहुए ।
पहला महत्त्वपूर्ण मामला तब उठा जब उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्षश्री नफीसुल हसन ने 8 अक्कूबर, 2951 को बम्बई के साप्ताहिक ‘ब्लिट्ज’ केसम्पादक के विरुद्ध विशेषाधिकार भंग का एक प्रश्न विधानसभा की विशेषाधिकारसमिति को जाँच के लिए भेजा । यह प्रश्न ‘ब्लिट्ज' के 27 सितम्बर, 1951के अंक में अध्यक्ष की निष्पक्षता पर आक्षेप करनेवाला एक लेख प्रकाशित किएजाने पर उठा था ।
विशेषाधिकार समिति ने पत्र के सम्पादक श्री डी० एम० मिख्नी को उसकेसमक्ष उपस्थित होकर स्पष्टीकरण करने को कहा । किन्तु, श्री मिख्नी ने उसकीपूर्णतः उपेक्षा की । वह न तो समिति के समक्ष उपस्थित हुए, न ही उन्होंने समितिके समन का जबाब दिया । समिति ने इसे गम्भीर बात माना और विधानसभा सेसिफारिश की कि मिख्री को अधिकतम दण्ड दिया जाए । उन्हें गिरफ्तार करकेउस समय तक कारावास में रखा जाए जब तक विधानसभा चाहे ।
विधानसभा ने 7 मार्च, 1952 को प्रस्ताव पारित करके निर्णय किया किअध्यक्ष श्री मिख्री के खिलाफ वारण्ट जारी करें। उन्हें गिरफ्तार करके विशेषाधिकारभंग के आरोपों का जबाब देने के लिए सदन के समक्ष पेश किया जाय । अध्यक्षने वारण्ट जारी किए और श्री मित्री को बम्बई में गिरफ्तार करके लखनऊ लायागया । लखनऊ में उन्हें एक सप्ताह तक एक होटल के कमरे में रखा गया ।
इस बीच श्री मिख्री की ओर से उच्चतम न्यायालय में बंदी प्रत्यक्षीकरणयाचिका दायर की गई । इसमें कहा गया कि श्री मिखी को गिरफ्तारी के 24 घंटे के अन्दर किसी मजिस्ट्रेट के समक्ष प्स्तुत न करके संविधान के अनुच्छेद 22

(2) का उस्लंधन किया गया है। उच्चतम नशायालय ने यानिका स्वीकार करते हुएश्री मिसत्नी को रिह्ा कर दिया ।
इस प्रकार न्यायालय ने विधानसभाध्यक्ष के आदेश पर गिरस्तार किए गएव्यक्ति को रिहा करके एक तो यह स्थापित किया कि न्यायालय को संविधान-प्रदतनागरिक-अधिकारों को लागू कराने का अधिकार है, भते ही इनका उल्लंघन संसदीयविशेषाधिकारों के अन्तर्गत विधानसभा (अथवा संसद) के आदेश से हुआ हो ।
(ए० आई० आर० 1954, एस० सी० 636)श्री मिख्री ने उच्चतम न्यायालय के आदेश से रिहा होने के बाद विधानसभाष्यक्षपर बम्बई उच्च न्यायालय में क्षति-पूर्ति के लिए दीवानी मुकदमा कर दिया । इसकाआधार उन्होंने यह बनाया कि (1) उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष को उतरप्रदेश से बाहर रहनेवाले किसी व्यक्ति के विरुद्ध वारण्ट जारी करने का अधिकारनहीं है और (2) उन्हें अनुच्छेद 22 (2) का उल्लघन करके गलत हिरासत मेंरखा गया ।
बम्बई उच्च न्यायालय ने मुकदमा खारिज करते हुए निर्णय दिया कि अनुच्छोद 194 (3) में विधानसभा के विशेषाधिकार के बारे में कोई क्षेत्रीय सीमा निर्षारितनहीं की गई है। राज्य से बाहर रहनेवाला कोई व्यक्ति उसकी विधानसभा कीगरिमा नहीं गिरा सकता है। विशेषाधिकार भंग के आरोपों का उत्तर देने कोउपस्थित कराने के लिए कहीं भी रहनेवाले व्यक्ति के खिलाफ वारण्ट जारी करनेका अधिकार विधानसभा को है। गलत हिरासत के लिए क्षति-पूर्ति के सवाल परउञ्च न्यायालय ने कहा कि सभाष्यक्ष विधानसभा के अधिकारी हैं और उन्हें अनुच्छेद 212 (2) के अधीन विधानसभा के संचालन सम्बन्धी कार्यों के सिलसिले मेंअधिकारों के प्रयोग पर पूर्ण उन्मुक्ति प्राप्त है, भले ही उनके द्वारा जारी वारण्ट कोदूसरों ने गलत ढंग से लागू किया हो ।
(आई० एल० आर० 1957, बम्बई 218)क्या समाचारपत्र संविधान के 19वें अनुच्छेद में प्रदत्त ‘वाक् और अभिव्यक्ति’की स्वतन्त्रता के आधार पर संसद् या विधानमण्डलों की कार्यवाही के उन अंशोंको प्रकाशित कर सकते हैं जिन्हें अध्यक्ष के आदेश से कार्यवाही के अभिलेख सेनिकाल दिया गया हो ?
इस महत्त्वपूर्ण प्रश्न पर उच्चतम न्यायालय ने सर्चलाइट’ (पटना) के मामलेमें विचार किया।
हुजा यह कि ‘सर्चलाइट’ ने बिहार विधानसभा के एक सदस्प के भाष्ण केउन जंशों समेत पूरा भाषण अपने 31 मई, 1957 के अंक में प्रकाशित कर दियाजिन्हें अध्यक्ष ने कार्यवाही के अभिलेख से निकाल दिया था ।
सदन ने यह मामला अपनी विशेषाधिकार समिति को भेज दिया । समितिने जब ‘सर्चलाईट’ के सम्पादक श्री एम एस एम शर्मा को जवाबतलब कियातो श्री शर्मा ने उब्चतम न्यायालय में समादेश-याचिका दायर कर दी । इसमें उन्होंने कहा कि विशेषाधिकार समिति द्वारा उन्हें भेजी गयी नोटिस और प्रस्तावितकार्रवाई अनुच्छेद 19 (1) (क) से प्रदत्त वाक् और अभिव्यक्ति-स्वातन्त्र्य के उनकेअधिकार का उल्लंघन है। उनके पत्र को अनुच्छेद 19 (2) में लिखे निर्बन्धनों केअधीन बने किसी कानून के अन्तर्गत लगी रौक को छोड़कर किसी भी विषय मेंकुछ भी प्रकाशित करने का अधिकार है। उनका मत था कि जिस तरह ‘बिलट्जके मामले में उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 22 (2) के अधीन मौलिक अधिकारकी रक्षा की थी वैसे ही अनुच्छेद 19 (1) (क) के मौलिक अधिकार को संसदीयविशेषाधिकार के क्षेत्र में लागू किया जाना चाहिए ।
किन्तु, उच्चतम न्यायालय ने इसे नहीं माना । उसका निर्णय था कि चूँकिअनुच्छेद 19 (1) (क) सामान्य प्रकृति का है और संसदीय विशेषाधिकारों सम्बन्धीअनुच्छेद 105 (3) और 194 (3) विशेष प्रावधान है इसलिए 19 (1) (क)को 105 (3) और 194 (3) के सामने गौण माना जाएगा।
उच्चतम न्यायालय ने इसके साथ ही यह महत्त्वपूर्ण निर्णय भी किया कि अगरसंसद् या विधानमण्डल अपने विशेषाधिकारों की परिभाषा करनेवाले कानून अनुच्छेद 105 (3) या 194(3) के अन्तर्गत बनाते हैं तो ये कानून अनुच्छेद 19 (1)(क) के समक्ष गौण होंगे तथा उनके अधीन की गई किसी कार्रवाई पर न्यायालययह देखने के लिए विचार कर सकेंगे कि उनसे इस अनुच्छेद का उल्लंघन तो नहींहुआ ।
इस मामले में न्यायमूर्ति के० सुब्बाराव ने भिन्न मत दिया। उनका विचारथा कि यदि मौलिक अधिकारों और संसदीय विशेषाधिकारों में टकराव होता है तोमौलिक अधिकारों के समक्ष विशेषाधिकारों को गौण माना जाएगा। इसलिए,सम्पादक को संसद् की कार्यवाही का पूरा विवरण प्रकाशित करने का मौलिकअधिकार है।
(ए० आई० आर० 1959, एस० सी० 395)विशेषाधिकारों के सम्बन्ध में भारत में सर्वाधिक विवादपूर्ण, रोचक औरमहत्त्वपूर्ण मामला केशवसिंह का है जो 1964 में उत्तर प्रदेश में उठा, पर उसकीगूँज सारे देश में हुई ।
केशवसिंह गोरखपुर का एक राजनीतिक कार्यकर्ता था । उसने अपने कुछसाथियों के साथ उत्तर प्रदेश विधानसभा के एक सदस्य के खिलाफ पर्चा प्रकाशितकिया । विधानसभा ने उसे अपने विशेषाधिकार के उल्लंघन का दोषी पाया औरसभाध्यक्ष ने उसे 16 मार्च, 1964 को विधानसभा की ‘बार’ में खड़ा कर प्रताड़ितकिया। किन्तु, प्रताड़ना की प्रक्रिया के दौरान केशवसिंह ने आपत्तिजनक व्यवहारकिया । इस पर विधानसभा ने एक प्रस्ताव पारित करके उसे अवमान के दोष मेंसात दिन के कारावास का दण्ड दिया ।
लेकिन, तीन दिन बाद एक वकील एम० बी० सोलोमन ने उसकी ओर सेइलाहाबाद उच्च न्यायालय में बन्दी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर कर दी । इसमेंकहा गया कि (1) विधानसभा ने केशवसिंह को अवैध रूप से कारावास में डाला
है। उसे ऐसा करने का कोई अधिकार नहीं है। (2) केशवर्सिंह को अपने बचावका अवसर नहीं दिया गया, और (3) उसकी नजरबन्दी दुर्भावनापूर्ण और प्राकृतिकन्याय के सिद्धान्तों के प्रतिकूल है।
केशवसिंह और विधानसभा की ओर से वकील अपराह्न दो बजे न्यायमूर्तिबेग और न्यायमूर्ति सहगल की खंडपीठ के समक्ष उपस्थित हुए । यह फैसला कियागया कि याचिका पर 3 बजे विचार किया जाएगा । किन्तु 3 बजे विचार शुरूहोने पर विधानसभा की तरफ से कोई वकील उपस्थित नहीं हुआ । न्यायाधीशोंने सुनवाई के बाद केशवसिंह को मामले पर गुण-दोष के आधार पर विचार होनेतक जमानत पर छोड़ने का आदेश दिया । इस पर विधानसभा ने 21 मार्च,1964 को एक प्रस्ताव पारित करके दोनों न्यायाधीशों, वकील सोलोमन औरकेशवसिंह को विधानसभा के अवमान का दोषी ठहराया और उन्हें हिरासत मेंलेकर अपने समक्ष प्रस्तुत किए जाने का आदेश दिया ।
न्यायमूर्ति बेग और सहगल ने यह बात रेडियो पर सुनी और दूसरे दिन सुबह
उच्च न्यायालय में याचिका प्रस्तुत की जिसमें उन्होंने कहा कि
(1) विधानसभा का प्रस्ताव पूर्णतः असवैधाનિक है,
(2) यह अनुच्छेद 211 का उल्लंघन करता है जिसके अनुसार न्यायाधीशोंके उनके कर्तव्यों सम्बन्धी आचरण पर विधानमण्डलों में (उन्हें हटाने के प्रस्तावपर विचार को छोड़कर) चर्चा नहीं की जा सकती है। (ऐसा ही प्रावधान संसूदमें उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों के आचरण पर चर्चा नकरने के विषय में अनुच्छेद 121 में है ।)
(3) केशवसिंह की ओर से दाखिल बन्दी प्रत्यक्षीकरण याचिका ठीक थी ।
(4) हमने (न्यायाधीशों ने) संविधान के अनुच्छेद 226 के अधीन अपनेप्राधिकार का प्रयोग करते हुए केशवसिंह की रिहाई का आदेश दिया था ।
(5) विधानसभा का प्रस्ताव न्यायालय का अवमान करता है, और
(6) चूँकि विधानसभा को इसे पारित करने का कोई अधिकार नहीं है इसलिएइसे रद्द कर दिया जाए तथा इस बीच इसके अमल को स्थगित कर दिया जाए ।उसी दिन न्यायालय के सभी 28 न्यायाधीशों ने इस याचिका पर विचार करकेइसका अन्तिम निपटान होने तक प्रस्ताव के कार्यान्वयन पर रोक लगा दी ।
उधर विधानसभा ने स्थिति का स्पष्टीकरण करनेवाला प्रस्ताव पारित किया ।इसमें कहा गया कि विधानसभा के अवमान के प्रश्न का फैसला दोनों न्यायाधीशोंको नियमानुसार सुनवाई का अवसर देने के उपरान्त किया जाना चाहिए। उनकेविरुद्ध जारी गिरफ्तारी के वारण्ट वापस ले लिए गए किन्तु उन पर सदन के समक्षउपस्थित होकर जवाब देने का बन्धन लगा दिया गया । इस पर उच्च न्यायालयफिर बैठा और उसकी 23 न्यायाधीशों की पीठ ने इस प्रस्ताव पर अमल को भीस्थगित करने का आदेश दिया ।

विधाधिका और न्यायपालिका के बीच इस सीधे टकराव से उपस्थित इससंवैधानिक संकट को दूर करने के लिए केन्द्र ने अनुच्छेद 143 का सहारा लिया।इसके अधीन राष्ट्रपति ने सारे प्रश्न पर उच्चतम न्यायालय की राय ली ।
किएउच्चतम न्यायालय ने एक के विरुद्ध छह के बहुमत से निम्नलिखित मत प्रकट
1. भारत के त्यायालय यह जानने के लिए कि किसी सदन का अवमान हुआहै या नहीं उसके द्वारा जारी वारण्ट की, चाहे उसमें कारण दिए गए हों या नहीं,जाँच कर सकते हैं। इंग्लैंड में अदालतें इसलिए ऐसे वारंट की जाँच नहीं करसकतीं जिनमें कारण न दिए गए हों, क्योंकि वहाँ की संसद् उच्चतम अभिलेखन्यायालय है। भारत की संसद् या विधानमण्डल कभी न्यायालय नहीं रहे इसलिएउन्हें ऐसा विशेषाधिकार प्राप्त नहीं है कि उनके वारंटों पर यहाँ के न्यायालय विचारन कर सके। भारत के उच्चतम और उच्च न्यायालयों का क्रमशः अनुच्छेद 32 और 226 के अन्तर्गत यह कर्तव्य है कि वे नागरिक के मौलिक अधिकारों कोलॉगू कराएँ। मौलिक अधिकारों और न्यायिक पुनरीक्षा के सिद्धन्तों के कारणभारतीय संसद् और विधानमण्डल यह दावा नहीं कर सकते कि उनके ऐसे वारंटोंपर न्यायालयों को विचार करने का अधिकार नहीं है जिनमें कारण न दिए गएहों। (इंग्लैंड में अदालतें संसद् द्वारा जारी उन्हीं वारंटों पर विचार कर सकती है।जिनमें कारण दिए गए होते हैं। और संसद् इसकी वजह से आम, अर्थात् ऐसेवारंट जिनमें कारण नहीं बताए जाते, जारी नहीं करती है)
2. संविधान में यह अपेक्षा की गई है कि संसद् और विधानमण्डल अपनेविशेषाधिकारों के बारे में कानून बनाएँगे । ये कानून अनुच्छेद 19 (1) (क) केअनुरूप होने चाहिए, नहीं तो वे असंवैधानिक होंगे ।
3. ऐसे कानून न बनने तक अनुच्छेद 19 (1) (क) विशेषाधिकारों से सम्बन्धीअनुच्छेदों के सामने गौण होगा । लेकिन, अनुच्छेद 21 नहीं । (अनुच्छेद 21 मेंप्राण और दैहिक स्वतन्त्रता के संरक्षण की प्रत्याभूति है) यदि कोई व्यक्ति यहशिकायत करता है कि विधायिका के आदेश से उसकी दैहिक स्वतन्त्रता दुर्भावनापूर्वकछीनी गई है तो अदालतों की यह जिम्मेदारी है कि वे उस पर विचार करें ।
4. संसद् या विधानमण्डल को किसी न्यायाधीश द्वारा अपने कर्तव्यों के पालनमें किए गए किसी कार्य पर उसके खिलाफ अपने अवमान के आरोप में कार्रवाईकरने का अधिकार नहीं है क्योंकि निर्भीक और स्वतन्त्र न्यायपालिका भारत कीसंवैधानिक संरचना का बुनियादी आधार है ।
5. अदालतों के समक्ष शिकायत करना नामरिकों का अधिकार है और इसमेंउन्हें सहायता देना वकीलों का अधिकार है । इन अधिकारों को संसदीयविशेषाधिकारों से नियंत्रित नहीं किया जा सकता है। कोई सदन किसी उचन्यायालय के न्यायाधीश की गिरफ्तारी का प्रस्ताव पास नहीं कर सकता है ।केशवसिंह के मामले में उत्तर प्रदेश विधानसभा वकील और न्यायाधीशों को हिरासतमें लेने और उन्हें अपने सामने पेश किए जाने का निर्देश देने को सक्षम नहीं थी ।

  1. संसद और विधवानमण्डलों को अपने अवमान के लिए लोगों को देडितकरने का अधिकार है। पर,उनके आदेशों की न्यायालय द्वारा समीकषा की जासकती है। यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि संसद विधानमणडलों के किसी कोदंडित करने के अधिकार पर न्यायिक नियंत्रण बहुत सीमित है। जैसे, यदि दंडितकिए गए व्यक्ति को अपना बचाव करने का अवसर न दिया गया हो, या प्राकृतिकत्याय के सिद्धान्तों का पालन नहीं किया हो, तभी या दुर्भावनापूर्वक काररवाई कीगई हो तभी न्यायालय हस्तक्षेप करेगा।
    उच्चतम न्यायालय के राय के बाद इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने केशवर्सिंह केखिलाफ विधानसभा की कार्रवाई को वैध ठहराया। उसने कहा कि विधानसभाअपने अवमान करनेवालों को गिरफ्तार करने का वारंट जारी कर सकती है। यहनिर्णय करने का अधिकार केवल सदन का है कि उसकी अवमानना हुई या नहीं ।न्यायालय इसकी जाँच नहीं कर सकते हैं । केशवसिंह के मामले में प्राकृतिक न्यायके सिद्धान्तों का उल्लंघन नहीं हुआ क्योंकि विधानसभा ने विशेषाधिकार भंग कीजाँच के नियम बना रखे हैं । उच्च त्यायालय ने दुर्भावना से कार्रवाई किए जानेका आरोप भी सही नहीं माना । उसने कहा कि सिर्फ यह तथ्य जिसके खिलाफविधानसभा ने अवमान के लिए कार्रवाई की वह बहुमतवाले दल से भिन्न दल काथा इस बात का संकेत नहीं माना जा सकता कि विधानसभा ने दुर्भावना से कार्रवाईकी थी ।
    कर्नाटिक के ए० के० सुब्बैया बनाम कर्नाटक विधान परिषद् के मामले में यहप्रश्न उठा कि यदि विधानमण्डल का कोई सदस्य उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों केआचरण पर निन्दात्मक टिप्पणी करता है तो क्या अदालत अनुच्छेद 211 केउल्लंघन के लिए कार्रवाई कर सकती है ? ए० के० सुब्बैया और एक अन्य विधायकने कर्नाटिक उच्च न्यायालय में एक समादेश याचिका दायर करके शिकायत की थी।कि विधान परिषद् के एक सदस्य ने सदन में किए अपने भाषण में उचच न्यायालयके न्यायाधीशों के आचरण की निन्दा की थी ।
    उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि विधायकों को सदन में कुछ भी कहने कीआजादी है। उनके कथनों को अध्यक्ष या सदन ही नियंत्रित कर सकते हैं। वहीयह निर्णय कर सकते हैं कि किसी सदस्य ने सदन में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता केअधिकार का प्रयोग करते हुए अनुच्छेद 211 का उल्लंघन किया है या नहीं ।अनुच्छेद 211 के उल्लंघन के आरौप की जाँच करना न्यायालय के अधिकार-क्षेत्रसे बाहर है। (लोकसभा, विधानसभा , राज्यसभा,विधान परिषद एवं के पत्रकारिता अध्ययनरत्र छात्रों व पत्रकार इस लेख को एक बार अध्ययन करने का कृपा करें)
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